फिर बरस एक और बीत चला,
सौगातें स्वर्णिम लाया था ।
कुछ मीठी और कुछ खट्टी सी,
यादों की पिटारी लाया था ।
आगजनी और हिंसा का ,
कहीं रूप देखने को था मिला ।
मंदिर, रिश्ते, दुष्कर्मों पर ,
कहीं न्याय देखने को था मिला ।
जो मुझसे रखते हैं अनुराग ,
और जो भी रखते हैं विराग।
जाने अनजाने जो सिखा गए ,
एक धन्यवाद तो बनता है ।
मेरे कूप मंडूक से जीवन को,
यू बी आई सा विस्तृत क्षेत्र दिया। भावों से बहती ‘सरिता’ का
एक धन्यवाद तो बनता है ।
दरख़्त-ए-हयात से,
फिर शाख एक झड़ चली
गुजर गया दिसंबर यूँ ,,,
स्वागत है नई जनवरी,,।
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