जंगल की वह सुबह याद है, ।
पेट से गूंजती जैसे फरयाद है, ।
किसी ने रुक कर पूछा यह लोटा कैसे ।
घबराते मैने कहा, भला धोता कैसे ।
मिट्टी के अजब फायदे मुझे वो समझने लगा ।
मेरी बरसों की आदत से मुझे उलझाने लगा ।
बातों में उसकी दम था में छोड़ ना सका ।
जीन्स भी नई थी, में बांड तोड़ ना सका ।
मैंने परवरिश मेे बड़ों का मान सीखा था ।
इस माहौल मेे मगर आपना अपमान दिखा था ।
सारी मर्यादा की इमारत मुझे तोड़नी पड़ी ।
उस महाशय की बात अधूरी छोड़नी पड़ी ।
मुझे माफ़ कर देना भगवान इस लाचारी का ।
और आगे से खयाल रखना मेरी त्यारी का ।
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