भीगी पलकों की कहानी
युगों युगों की रवानी
कह रही आँसुओं की वाणी
“मानवी “लेखनी की जबानी
बस और नहीं हाँ अब और नहीं।।
जब भी चाहा कि चल दूं तुम्हारे साथ दो कदम
लक्ष्मण रेखा दहलीज़ देहरी पुजवा ली।।
सोचा एक बार ही सही
बैठ जाऊँ अनुरागी प्रिया बन तुम्हारे बराबर
लक्ष्मी गृहलक्ष्मी दुर्गा सरस्वती सती के आसनों पर बैठा दिया
अनसुनी कर दी भीगीं पलकों की पुकार
सुनाकर अनहद नाद ओंकार।।
गार्गी से हार कर भी शास्त्रार्थ में
बन कर ऋषि याज्ञवल्क्य बन बैठे।।
मैत्रेयी लोपामुद्रा को
अनायास नहीं सायास भुला बैठे।।
कैसे ऋषि?
अपने ही मानदंड से बँधे जमदग्नि
माता रेणुका को मानसिक व्यभिचार का दंड देकर
पुत्र परशुराम को माँ का हत्यारा बना दिया।।
यह कैसा ब्रम्ह ज्ञान?
उर्मिला उत्तरा माधवी ही नहीं – यशोधरा तारा अहिल्या के अश्रु को भी नहीं पढ़ पाए।।
पूछ रहीं हैं समय की भीगीं पलकें
कब समझोगे?
बेटियों बहनों माँओं पत्नी प्रेयसी की ही नहीं
नारी हदय की व्यथा – – भीगीं पलकों की कथा व्यथा ।।
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