कैसी मधुर कल्पना थी!!!!
किसी कवि की,
‘हरी भरी वसुंधरा पे नीला नीला ये गगन’
आज अपनी ही भौतिक आकांक्षाओं
का हो शिकार
किया तूने प्रकृति का दोहन
अब वायुमंडल में देख
काला आवरण तू क्यों
घबड़ाया है?
यह विनाश तो तेरा स्वयं का लाया है
,देख,
अब यह भयावह मंजर——
शस्य-श्यामला धरती हुई अब बंजर
हरे भरे वनों से लिप्त अनल
हुआ विषाक्त कल-कल करता
सरिता जल,
मौसम के बदलते तेवर देख
तू क्यों घबड़ाया है
यह विनाश——–
जाग अब तू जाग
छोड़ गगनचुंबी इमारतों का दंभ भरना
प्रदूषण रहित धरा को सुधा -सिंचित करने का प्रण कर।
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