किस्से कहानियों में अक्सर सुनते हैं,
वहां मत जाओ, वहां भूत रहते हैं।
पर क्या किसी ने देखा है भूत को?
या ये महज एक काल्पनिक पात्र है?
नहीं, सिर्फ एक काल्पनिक पात्र नहीं है,
हमारे मन में ही इसका रैन बसेरा है।
जब घेर लेती हैं भूत की परछाईयां,
मन बन जाता है बरबस, एक भूत बंगला।
हम खुद ही भूत में विचरते रहते हैं,
जाने कैसे कैसे भूत पकड़कर लाते हैं।
जो गुज़र चुका उसका सोग मनाते हैं,
अपने आज को कैसा रोग लगाते हैं।
लील लेता है जो वर्तमान को निरर्थक ,
जिज्ञासा देकर भविष्य की बलपूर्वक।
उबर नहीं पाते भूत के कलुषित गहरे से,
छा जाते जब इसके घोर अंधेरे पहरे से।
मन इंद्रियां इसके वश में क्या-क्या करवाते,
क्रोध, मोह, लोभ में हम क्या-क्या कर जाते।
सच कहते हैं, जकड़ लेता जब भूत है,
हो जाता बुद्धि का क्षय विनाश तब है।
भूत कुछ नहीं, अतीत से निकला एक डर है
बना लेता जो अक्सर मन में एक घर है।
फिर घेर लेती हैं भूत की काली परछाईयां,
और मन बन जाता है बरबस, एक भूत बंगला।
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