कैसी है ये कल्पना निष्ठुर, क्यों रचा विश्वयंत्र ठाकुर।
चित्रकारी की बड़ी चतुर, मानव हृदय बनाया आतुर।।
चक्का लगा चँद्र-सूरज का, संचालन किया सृष्टि का,
उर्जा-निद्रा का कर प्रबंध, आगमन कराया वृष्टि का।
बो कर प्रेम-ईर्ष्या बीज, सत्य-असत्य का फोड़ा अंकूर;
कैसी है ये कल्पना निष्ठुर, क्यों रचा विश्वयंत्र ठाकुर।।
सजीव-निर्जीव दो कल-पुर्ज़े, वृत को रखे गतिमान,
सुख-दु:ख दो स्तम्भ बनाए, दिवाल खड़ी उसपे अभिमान।
मानव लीला का लेवे आनंद, इन्द्रभूमि पर बैठ मयूर;
कैसी है ये कल्पना निष्ठुर, क्यों रचा विश्वयंत्र ठाकुर।।
धैर्य-अधैर्य परिक्षा को, बिछाया स्त्री – स्वर्ण का जाल,
नृशंसता कही उत्पन्न हुई कही खिला दया का मृणाल।
आडम्बर – प्रिय बना संसार, व्यापक हुआ समस्त ग़रूर;
कैसी है ये कल्पना निष्ठुर, क्यों रचा विश्वयंत्र ठाकुर।।
बड़ा प्रपंचमय यंत्र बनाया, प्रेम-अनुराग से उसे सजाया,
‘मन’ नाम का शैतान रचा, फिर कहे छद्म सब मोह-माया।
नर्क का सुगम मार्ग बना कर मोक्ष का फैलाया कस्तूर;
कैसी है ये कल्पना निष्ठुर, क्यों रचा विश्वयंत्र ठाकुर।।
चित्रकारी की बड़ी चतुर, मानव हृदय बनाया आतुर।।
मृणाल – कमल, नाज़ुक, एक कमल की जड़
प्रपंच – छल–कपट से भरा कार्य, छलपूर्ण कार्य।
छद्म – छल, कपट, ढोंग।
आभा….
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