फूल हार सब त्यक्त पडे
अधिकार मान से वंचित था
अपनी गौरव महिमा भूला
वो ‘चांद’ अभी तक ग्रहण मे था
चंद दिनों की बात नहीं
युगों युगों अंधेरा था
पददलित संघर्षयुक्त
असमंजस मे झूल रहा
खोकर अपनी गौरव गाथा
पीडा से वो त्रासद था
कुरीतियों मे जकड़ा था
अंधविश्वासों मे भटकता था
ज्ञान मान की बात कहाँ
पर्दे का वो कैदी था
सिर्फ वसन ही जीर्ण नहीं थे
मन भी चिथडे चिथड़े था
अपना होना ना होना
उसके लिये बराबर था
उसका जीवन भारी था
मरण से मन आभारी था
शिक्षा तक पहुंच दुर्लभ थी
भूख बडी लाचारी थी
बिन पैसे की मजदूरी थी
बस मेहनत थी
मजबूरी थी
कहीं द्रौपदी बन अन्याय पिया
कहीं पद्मिनी का जौहर दहका
सावित्री फुले काअपमान हुआ
हाय!कितनों ने क्या क्या न सहा
फिर भी ना झुकी
वो लडती रही
हर मुश्किल मे और
निखरती गयी
मेंहदी के ज्यों पिसती गयी
और गहरी उभरती गयी
आज युगों की तपसा को
नवयुग का सुप्रभात मिला
उस ग्रहण ग्रस्त रजनीश को
आभामय संदेश मिला
नव वेश परिवेश मे
उन्मुक्त गगन का साथ मिला
ओ नारी अब अधीर ना हो
तू ‘चांद’ अब
ग्रहण मुक्त हुई।
भावना शर्मा
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