कभी था एहसास कि
अटूट पत्ता हूँ उस वृक्ष का
सत्य के ज्ञान का समय
शायद मेरी उम्र से भी कम था।
काट दी गई मुझ तक पहुँचने वाली
जल और पोषण की नमी
हरे पत्ते से मैं सुनहरा होता गया
और इस बात पर सीना फुलाने
से पहले ही शाख से हौले हौले
नीचे गिरा दिया गया।
आज़ाद कहूँ खुद को या खादाबदोश
कभी हवा के झोंके से
यहाँ और कभी वहाँ
धरा पर घूमने का अपना ही मज़ा था।
बहुत से मेरे बन्धुण्बान्धव भी
प्रकृति की इस कृति का अंश थे।
कुछ अग्नि के भेंट चढ़ गए
और ठिठुरन दूर करते रहे
किनारे बैठे अर्धनग्न बूढ़े का।
कुछ गल गए कुछ सड़ गए
और मुक्त हुए अपने कर्ज़ से
दे गए अंश दान बन कर पोषण का एक कण।
मैं भी इन्तज़ार करता देख रहा हूँ
इठलाते पेड़ की शेष पत्तियों को
खुदा करे कि वो पेड़ बढ़े
फूले और फले और बने आश्रय किसी और का।
मेरा क्या मै संग रहूँ या न भी रहूँ
टूटा ही सही एक रिश्ता तो है ।।
How useful was this post?
Click on a star to rate it!
Average rating 0 / 5. Vote count: 0
No votes so far! Be the first to rate this post.