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हेमलता मिश्र “मानवी ” (विधा : लघु कथा) (न्याय | प्रशंसा पत्र)

 आसमान का न्याय

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      नहीं क्षितिज भ्रम है ये बातें। अपनी ही नजरों से गिराने का यह सामूहिक प्रयास अब और नहीं सहेंगे हम। हम  अपना फैसला खुद करेंगे । समाज के दरबार में रुसवाई के भय से यूँ तिल तिल कर जीना मरना गवारा नहीं है अब । घर में युवा चौकड़ी चौबीसों घंटे सूली पर चढाए रखती है। ऐसा नहीं कि हमें चाहती नहीं मगर फिर भी कोई भी बात मुंह से निकली नहीं कि लपक ली और फिर शुरु अपशब्दों और कुतर्क की शक्कर पगी फुहारें। थोडे से विवाद के चलते छोटा बडे़ को फोन करता मेरा घर टूट जाएगा। इनके साथ मेरी बीबी की नहीं जमती।इन्हें आप ले जाओ। 

        अरे ये कैसा न्याय– घर नहीं हुआ मिट्टी का घरौंदा हो गया जो एक दो बातों से बहने लगा। ४० वर्षों तक पूरे संयुक्त परिवार में रहते उनका घर टूटने की नौबत कभी नहीं आई और आज  जनरेशन गैप के नाम पर छोटी-छोटी बातों पर नयी पीढ़ी का घर टूटने लगा।

    इधर कुआँ उधर खाई। बड़े के घर चार दिन में अशांति ब्लड प्रेशर बढा देती। हर बात में अतीत को कुरेदता हुआ, उनकी पेरेंटिंग पर लानतें भेजता रहता। अपनी जिंदगी की हर पराजय के पीछे माँ बाप के पालन पोषण को दोष देकर अभावग्रस्त बचपन की बातें बता बता कर सहानुभूति पाना और अंत होता सिर्फ इस बात पर कि मेरा हिस्सा मुझे अभी दे दो आप लोगों को बहुत कुछ अच्छा देना है। आप लोगों के जाने के बाद मिला भी तो क्या काम का?आप लोगों को लेकर जरूरतें आज हैं। एक हद तक बात सही है मगर उससे बड़ा सच है उसके निर्णयों का गलत साबित होना।उसके भोले भाले से बिना विचारे इन्वेस्टमेंट और खर्चों ने उसे सड़क पर लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है और अब माता पिता की कमाई पैतृक संपत्ति भी उसे लूटने लुटने  का सामान बन जाएगी।शुक्र है कि अच्छी नौकरी ने उसे बनाए रखा है 

     “नहीं दो आज्ञाकारी बेटे बहुओं के झूठे मिथक को बनाए रखने के लिए हम  मुखौटा नहीं पहनेंगे। कल ही हम अलग शिफ्ट हो जाएंगे।अब कोई समाज या रिश्तों की चिंता नहीं बस अपनी जिंदगी अपने लिये जीना है। इन्हें हमारे साथ समय बिताना है तो ये हमारे नये घर आएं। इनके बचपन की यादों का पुराना घर इन्हें मुबारक। हम असहाय बुढ़ापे का चोला उतार फेकेंगे— पैंसठ और सत्तर की उम्र में  अपना नया आशियाना बनाएंगे क्योंकि जीने की कोई उम्र नहीं होती– उम्र तो मरने की होती है। जीना तो हर उम्र में उम्मीद का नाम होता है क्यों छोड़ें हम जीना। हम जीयेंगे अपने साथ अपने लिए अपने न्याय के साथ।”

      पति के इन शब्दों के साथ उसका भी न्याय शामिल हो गया था। चार नुचे लुटे पिटे पंखों के लिये आसमान  का न्याय उन्हें मंजूर था। बस डर एक ही था कि कल का सूरज उनके न्याय को फिर से डिगा न दे क्योंकि दिल और ममत्व का न्याय सदैव एक तरफा होता है 

 

हेमलता मिश्र “मानवी “

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