अंधेरा सघन, घनघोर,
मन में उथल-पुथल, पुरज़ोर ,
बाहर शांत, भीतर शोर,
जाने अब कब होगी भोर?
हम अपने अंधकार से हारे हैं,
फिर भी अंधकार में जीते हैं।
अपने दंभ के अंधेरे में,
एहसासों को दफनाते हैं।
ग़म खुशियों पर हावी है,
छायी गहन उदासी है।
हर अंधकार की होती सुबह नई,
क्या इसका भी होगा अंत कहीं?
जीवन एक मायाजाल है,
हम माया से भरमाए हुए।
अज्ञान के इसी अंधेरे में,
मन का भटकाव हैं लिए हुए।
आकाश में छाई कालिमा पर,
चमक रहे चंदा तारे।
धवल सी रोशनी में,
धरती को ये नहला रहे।
आकाश में है एक ध्रुवतारा भी,
जो राह दिखाता भटके को।
मन के अंधकार जो दूर करे,
एक ऐसा ध्रुवतारा मिले हमको ।
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