किसने देखा है
रूह का सफ़र
मैंने, तुमने, उसने
कभी नहीं
महसूस किया है
रूह का सफर
मैंने, तुमने, उसने,
हम सब ने
हरदम, हरपल,
हर कहीं
गुजरती जिंदगी में
जैसे भावों की
अभिव्यक्ति में,
शब्दों के भीतर से,
या उकेरते रंगों को
झकास साफ
पन्नों में,
आंखों से टपकते
पानी में,
और उन तन्हा
पलों में भी,
जब अंतर से
चलता हुआ
अन्तर्भाव होता है,
गुजरता है तब
कोई अपने पास से
दूर तलक
न लौट आने का
एहसास किए,
टूटता है जब
कोई सपना
तब कहीं नहीं
दिखता आसपास
कोई अपना,
रूह चलती है
सफर पर,
न जाने कहां से
कहां तक,
कभी लौटकर
आती भी,
और कभी जाकर
न आने तक
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One Comment on “सुरेन्द्र बंसल (UBI रूह का सफर प्रतियोगिता | प्रशंसा पत्र)”
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