अपने अालेख का आरंभ मैं रामचरितमानस के इस सुंदर दोहे से करना चाहती हूँ…..
“बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि जलधि सिंधु वारीस,
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ।”
आशय केवल इतना है कि विस्तृत पटल,अथाह जलराशि,गहराई के स्वामी सागर की उन्मुक्त
उत्ताल तरंगों से सभी परिचित हैं ।
इसकी हाहाकार करती विपुल जलराशि कभी हमारे
मन को दहलाती है तो कभी उसका हल्का सा स्पर्श भी
हमारे दिल को माँ के स्पर्श कीभाँति दुलराता है ।इसकी ऊँची उठती लहरें कभी हमें प्रलंयकारी
विनाशलीला से डराती धमकाती है तो कभी पिता की स्नेहिल गोद सी सुरक्षा प्रदान करती है ।
इसी सागर किनारे पसरी बालुकाराशि पर
आसन जमाकर कितने ही चिंतकों व मनीषियों ने हमें अपने अभूतपूर्व ज्ञान से परिचित कराया,कवियों व शायरों ने कालजयी रचनायें की, कलाकारों, चित्रकारों ने अभूतपूर्व कला का प्रदर्शन किया ।
यह तो हुई अाधारण प्रतिभा के धनी व पारखी लोगों
की बातें।परंतु,हमारी दीन हीन मलीन जनता
के लिये भी यह एक सुविधाजनक शरणस्थली से कम नहीं।
त्रेता युग में अजेय समझे जाने वाले समुद्र को भगवान राम व उनके सहायकों द्वारा पुल बनाकर
बाँध दिया गया।और लंका पर विजय प्राप्त करके वहाँ के बलशाली राजा रावण के चंगुल से
सीता जी को छुड़ाया।आज के ज़माने के तो क्या ही कहने???आज विज्ञान और टेक्नॉलजी की
सहायता से अपराजित कहलाये
जाने वाले सागर को मनुष्य ने अपना दास बना लिया है।
सागर अप्रमेय,अजेय,अथाह,अगम
होते हुये भी अनमोल मोतियों, मूल्यवान गैस व
खनिज तेलों का अतुल्य ख़जा़ना है।जो भी जोखिम
उठाकर समुद्र तल की गहराईतक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं उन्हें यह मालामाल कर देता है ।
जब यह तांडव करता है तो इसका
रूप प्रलंयकारी शिव जैसा होता है
और जब यह ममता का हाथ बढ़ाता है तो इसका
स्पर्श स्नेहमयी माँ जगदम्बा जैसा होता है ।
संक्षेप में लहर-२ करती लहरों के
बिना हम सागर की कल्पना भी नहीं कर सकते। ये लहरें जब तट से टकराती हैं तो मन मानो अनहद
नाद से गुंजरित हो जाता है ।
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