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प्रीति पटवर्धन (विधा : कविता) (न्याय | प्रशंसा पत्र)

न्याय

 

न जाती न धर्म नही उम्र का गुलाम हो

पलड़े दोनों बराबर हो जब न्याय का मुक़ाम हो

 

अपने खुद के बेटे को हाथी से कुचला दिया

स्त्री अपमान का दंड दे सबका दिल दहला दिया

 

अँधेरे में तब उसने प्रकाश की किरण जगाई

कोई औऱ नहीं ,वो थी न्याय प्रिय अहिल्याबाई 

 

न्याय की शुरुवात अपने घर से ही करनी होगी

बेटा बेटी दोंनो को समान तवज्जों देनी होगी

 

देना होगा स्त्रीयों को  स्वतंत्रता का अधिकार

क्यों करें कोई सीता अबअग्निपरीक्षा स्वीकार

 

बेटी बचाओअभियान को अमल में लाना होगा

भ्रूण में, समाज में उचित सम्मान दिलाना होगा

 

न हो अब शिकार कोई निर्भया या असिफ़ा

बस फाँसी हो यह पैग़ाम लाए कोई कसीदा

 

कोमल है कमज़ोर नहीं ,नारी नर से कम नहीं सबरीमाला में किया प्रवेश , देर हुई अंधेर नहीं

 

रखा हौसला बुलंद कर दिए सबके मुँह बंद                सर आखो पर तेरा न्याय तीन तलाक हुआ अंत 

 

करना होगा संधर्ष लहू में लाना होगा उबाल

न्याय पाने लगानी होगी मिलकर एक गुहार

 

न बहे खून अब न हो मज़हबी जंग कोई

धर्म की आड़ लेकर न जाये सुप्रीम कोर्ट कोई

 

तारीखों से बंधी है सो होती नयाय में देरी

वक़्त पर इंसाफ हो,बस इतनी अर्जी मेरी

 

प्रीति पटवर्धन🖋️( स्वरचित)

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