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प्रमोद मूंधड़ा (UBI रूह का सफर प्रतियोगिता | वरिष्ठ कविगण)

किसी अंजाने लोक से, अंजाने श्रोत से अवतरित हुई आत्मा और कर लिया शरीर का वरण । शरीर रुपी नौका पर होकर सवार चला एक अंजान यात्रा पर मुसाफिर.. लेकर साथ में चेतना की पतवार । सुनिश्चित था यात्रापथ और गंतव्य पर.. अचानक जाने किस ओर मुड़ गया और मन की राह से चलकर चेतना का तार
कामनाओं , वासनाओं के जाल से जुड़ गया । पता ही ना चला कि कब और कैसे अहंकार के बादलों से मन का आसमान भर गया और उसके अस्तित्व को कुछ और ही कर गया । अहंकार ने समझाया .. मन को भरमाया कि तुम्हें निकलना है सबसे आगे.. नहीं हो तुम साधारण .. तुम हो कुछ खास, होना चाहिए कुछ विशेष सिर्फ तुम्हारे पास । वो देखो ~ कितने सुहाने हैं किनारे .. वो धन का .. वो रूप का .. यश का , जिनको पाकर हो जायेंगे वारे न्यारे । भ्रमित हुआ मुसाफिर देखकर ये सारे । सुखों की तलाश में .. कामनाओं के ज्वार में पहुंच गया वो वासनाओं की तीव्र धार में.. देखा उस धार में और भी ऐसी अनेक नौकायें थी, कोई बहुत पास थी तो कोई थोड़ी दूर । जहां से आया था .. भूलकर उस परमात्मा के सागर को.. लग गया मुसाफिर भरने अपनी गागर को ।जोश था इतना कि खो गया होश.. सपनों की दुनिया में हो गया मदहोश ।

असंख्य थे किनारे .. अंतहीन दौड़ ..
और लगी थी आपस में .. मुसाफिरों में होड़ , कर रहे थे सभी जाने कैसी जोड़ तोड़.. यात्रा में आ गया कैसा ये मोड़ । कभी सुख की लहरें करती थी उत्तेजित तो कभी दुख की आंधी करती थी उद्वेलित ।छूट छूट जाती थी हाथों से पतवार.. नित डोलती नौका में बेसुध सा था सवार । भ्रमित मन का पंछी करता रहता था नित शोर, पाकर भी लगता था .. अभी और अभी और । जो भी पाया है वो कम है .. अभी पाना है और.. और इसी पाने की दौड़ में गुजरता जा रहा था उम्र का दौर । और फिर आया उम्र का एक ऐसा दौर जहां लगने लगा कि.. जो पाया था वो भी जाने कहां छूट गया, मालकियत का भ्रम भी .. अब मानो टूट गया । कैसी थी ये मोहिनी .. कैसे थे सपने और कहां अब वो मुसाफिर .. जो लगते थे अपने । देखा कि अब जोश हुआ जा रहा कमतर..
शरीर की नौका भी हुई जा रही जर्जर । क्या हुआ ~ कहां ले आया है ये सफर.. कहां रह गया ~ वो मेरा आनंद का सागर ?
जाना पहचाना सा लगता है ~ कौन है ये मुसाफिर ?

मन के गलियारे में झांक कर जरा पूछना । उत्तर जरूर आयेगा.. और फिर भी न आये तो .. आईना बतायेगा ..!!

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