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डॉ.आराधना सिंह बुंदेला। (विधा : कविता) (दर्द की दास्तान | सम्मान पत्र)

डॉक्टर माँ की भागती हुई ज़िंदगी जब लॉक्डाउन में थोड़ा थमी , तो एक दिन यूँ ही ये ख़याल आया और दर्द का ये एहसास कलम से निकल गया —

— माँ का दर्द—

माँ तो आख़िर माँ ही होती है
फिर चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो
जब वो अपने रोते हुए बच्चे को छोड़कर ,
किसी और का दर्द कम करने भागती है ,
दिल में दर्द उसके भी होता है
—क्यूँकि माँ तो आख़िर माँ ही होती है , चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो…

जब अपना बच्चा सूनी आँखों से देखकर
अपने स्कूल के वार्षिकोत्सव में ना आने पर ,
उसको मौन उलाहना देता है,
वो मौन उसके दिल को भी चीर देता है
—क्यूँकि , माँ तो आख़िर माँ ही होती है, चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो …

जब टीचर उसके बच्चे की शिकायतें कर , गुस्सा दिखाती है ,
वो कैसे बताए कि , वो समय अपने बच्चे को दे ना पायी ,
जो किसी और के बच्चे की जान बचाने में चला गया ।
वो आंसू अपने चुपचाप पी जाती है ,
—क्यूँकि , माँ तो आख़िर माँ ही होती है ,चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो ..

कभी जब आधी रात में वह घर से निकलती है,
अंधेरे को चीरती हुई , अस्पताल पहुँचती है ,
एक डूबती हुई साँस को जब वह साँस देती है ,
चेहरे पर शिकन नहीं , बस एक मुस्कान होती है,
—क्यूँकि माँ तो आख़िर माँ ही होती है , चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो…

पर , कहीं ना कहीं कुछ छूट जाता है ,
हाँ ; वो इतनी कुशल माँ नहीं बन पाती है ,
जब वो क़ीमती समय अस्पताल में बिताती है ;
सबकी माओं से पीछे रह गई , सोचकर दुःखी हो जाती है ।
—क्यूँकि , माँ तो आख़िर माँ ही होती है , चाहे वो डॉक्टर ही क्यू ना हो…

धर्म और कर्तव्य के रास्तों पर ,
औरों के बच्चों को सम्भालते हुए ,
अपने बच्चों के लिए दुआएँ करते हुए;
मन में विश्वास लेकर , सधे क़दमों से चलती जाती है
—-क्यूँकि, माँ तो माँ ही होती है , चाहे वो डॉक्टर ही क्यूँ ना हो ………

@डॉ आराधना सिंह बुंदेला

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20 Comments on “डॉ.आराधना सिंह बुंदेला। (विधा : कविता) (दर्द की दास्तान | सम्मान पत्र)

  1. So very true.
    We as working professional mothers experience it day in and day out.

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