कभी अपने कमरे में जाकर लेट गई। कभी फोन देखती, फिर फोन देखती। अकारण भी देखती। समय नहीं निकल रहा है क्या करे। नींद आ जाती तो तीन-तीन घंटे सो लेती। ऊँघी-ऊंघी सी रहती है सारा वक्त चिड़चिड़ी। वक्त-बेवक्त बच्चे पर झुँझलाहट निकालती। ग़ुस्से में बिल्कुल सिंहनी हो जाती। किसी तरह दिन बीता लेती। सहेली का फोन आ गया बाँछे खिल गई अब कुछ गॉसिप होगी। कुछ समय निकलेगा।
बहू को कहते सुना “फेसबूक पर वो विडियो देखा क्या, कैसे एक वृद्धा गाना चला कर डाँस कर रही थी। सचमुच बुढ़ापा निकालना बड़ा ही मुश्किल है। मैं तो बहुत सराहती हूँ ऐसे बुढापे को, इन्हें देख कर प्रेरणा लेती हूँ। कैसे बुढ़ापे में अपने आप को व्यस्त रखना है । बड़ा तरस आता है सच बोलूँ तो बुढ़ापे पर।”
कुछ देर बाद पोते की हरकतों पर ध्यान गया। वीकएंड की छुट्टी थी। चिड़चिड़ा सा बे-मक़सद इधर-उधर घुम रहा था। कभी कुछ खाता कभी कुछ। जब कुछ काम न हो तो इन्सान अवसाद ( डिप्रेशन ) में खाने-पीने के बारे में सोचता है व टाईम पास करने के लिए खाना आजकल एक आम बात हो गई है । दादाजी को अपने दोस्त के नाना के बारे में बताने लगा। “दादाजी, विजय के नानाजी रोज पार्क में घुमने जाते है। सरकारी अस्पताल में एक घंटा मरीज़ों से बातें करते है। किताबें पढ़ते है। अपने नाते-नातिन को स्कुल ले कर आने का काम भी करते है ले-दे कर पूरा समय व्यस्त रहते है।कितनी सुन्दर दिनचर्या है उनकी।” आप भी अपने आप को कितना व्यस्त रखते है। ये सुन कर दादाजी ने कहा, ”किसी ने सत्य ही कहा है-’’पर उपदेश कुशल बहुतेरे।” पर पोता समझ न पाया।
दादा-दादी दोनों आपस में बातें करने लगे। न जाने क्यों लोगों ने बुढ़ापे को लक्ष्य ( टार्गेट ) बना रखा है कि बुढ़ापे में टाईम पास नहीं होता यहाँ तो मैं देख रही हूँ बचपन व जवान लोगों की दुर्दशा ज़्यादा दयनीय है। घर-घर का ये हाल है। वर्तमान पीढ़ी के बारे में सोच कर दादी की पलकें भीग गई।
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