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अश्विनी राय ‘अरूण’ (विधा : आलेख) (न्याय | सम्मान पत्र)

शीर्षक : मनुवाद बनाम न्याय प्रक्रिया और आरोप…

 

यदि, वेदों पर आधारित मूल मनुस्मृति का अवलोकन करने पर हम पाएंगे कि आज मनुवाद का विरोध बस अज्ञानता का परिचायक है और वह मनुस्मृति से बिल्कुल उलट और निरर्थक है। महर्षि मनु की दण्ड व्यवस्था अपराध के स्वरूप और उसके प्रभाव एवं अपराधी की शिक्षा, पद और समाज में उसके प्रभाव पर निर्भर करता है। 

 

मनुस्मृति में ब्राह्मण का दर्जा सिर्फ ज्ञानी को है नाकि उसके उच्च कुल में जन्म के आधार पर।

माता के गर्भ से जन्म के उपरांत कोई मनुष्य अपना कुल उच्च करने का यहाँ अधिकारी है, वह 

यहाँ विद्या, ज्ञान और संस्कार से पुनः जन्म प्राप्त कर द्विज बन सकता है और अपने सदाचार से ही समाज में प्रतिष्ठा पा सकता है।

 

मनुस्मृति के अनुसार सामर्थ्यवान व्यक्ति की जवाबदेही भी अधिक होती है, अत: यदि वे अपने उत्तरदायित्व को सही तरीके से नहीं निभाता है तो वह कठोर दण्ड का भागी है। जिस अपराध में सामान्य जन को एक पैसा दण्ड दिया जाए वहां शासक वर्ग को एक हजार गुना दण्ड देना चाहिए।

 

(अगर कोई अपनी स्वेच्छा से और अपने पूरे होशो हवास में चोरी करता है तो उसे एक सामान्य चोर से ८ गुना सजा का प्रावधान होना चाहिए यदि वह शूद्र है, अगर वैश्य है तो १६ गुना, क्षत्रिय है तो ३२ गुना, ब्राह्मण है तो ६४ गुना। यहां तक कि ब्राह्मण के लिए दण्ड १०० गुना या १२८ गुना तक भी हो सकता है। दूसरे शब्दों में दण्ड अपराध करने वाले की शिक्षा और सामाजिक स्तर के अनुपात में होना चाहिए।)

 

प्रचलित धारणा के विपरीत मनु शूद्रों के लिए शिक्षा के अभाव में सबसे कम दण्ड का विधान करते हैं। मनु ब्राह्मणों को कठोरतर और शासकीय अधिकारीयों को कठोरतम दण्ड का विधान करते हैं। सामान्य नागरिकों में से भी शिक्षित तथा प्रभावशाली वर्ग, यदि अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ता है तो कठोर दण्ड के लायक है। अत: मनुस्मृति के अनुसार अपराधी की पद के साथ ही उसका दण्ड भी बढ़ता जाना चाहिए। 

 

मनुस्मृति के अनुसार जो ब्राह्मण वेदों के अलावा अन्यत्र परिश्रम करते हैं, वह शूद्र हैं। जब तक कि वह सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन न कर लें और पूरी तरह से अपने दुर्गुणों से मुक्त न हो जाएं जिस में कटु वचन बोलना भी शामिल है।

 

(क्योंकि साधारण लोगों की तुलना में ब्राह्मणों को ६४ से १२८ गुना ज्यादा दण्ड दिया जाना चाहिए।)

 

मनुस्मृति के अनुसार, एक शक्तिशाली और उचित दण्ड ही शासक है। दण्ड न्याय का प्रचारक है। दण्ड अनुशासनकर्ता है। दण्ड प्रशासक भी है। दण्ड ही चार वर्णों और जीवन के चार आश्रमों का रक्षक है। यदि भली- भांति विचार पूर्वक दण्ड का प्रयोग किया जाए तो वह समृद्धि  और प्रसन्नता लाता है परंतु बिना सोचे समझे प्रयोग करने पर दण्ड उन्हीं का विनाश कर देता है जो इसका दुरूपयोग करते हैं।

 

अश्विनी राय ‘अरूण’

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