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अनामिका जोशी ( उत्सव प्रतियोगिता | सम्मान पत्र )

“क्यों जिद कर रहे हो बेटा !! थोड़ा सा खा लो।”

 “नहीं !!! नहीं, खाना मुझे।”

” कब तक नहीं खाओगे बेटा “

“जब तक मैं दादा-दादी को देख नहीं लेता तब तक नहीं खाऊंगा।

 ऐसी जिद मत करो बेटा ! तुम जानते हो फिर भी ।

खैर! छोड़ो!!

 देखो ,जल्दी से खा लो ।

फिर शाम को जब तुम्हारे पापा आएंगे तब हम सब घूमने चलेंगे ।

नहीं, नहीं, नहीं!! खाऊंगा !!

मैं सबके साथ ही घूमने जाऊंगा ।

सुधा अपने छोटे पुत्र रवि को कह-कह कर थक चुकी थी

 रुआंसी होकर खुद से कहने लगी -हे भगवान !!

ऐसी भी क्या गलती हो गई थी मुझसे!

 जो आज हमें यह दिन देखना पड़ रहा है ।

मां !होली पर भी तुमने मैंने और पापा ने मिलकर होली मनाई थी ।

रक्षाबंधन ,जन्माष्टमी क्या सारे त्यौहार हम ऐसे ही अकेले यह मनाएंगे ??

जब तक दादा-दादी से मैं नहीं मिल लेता, मैं पटाखे नहीं छोडूंगा 

मिठाई नहीं खाऊंगा और नए कपड़े भी नहीं पहनूंगा ।

सुधा रवि की बातें सुन-सुन कर दुखी हुए जा रही थी ।

बुझे मन से उसने मिठाइयां बनाई ,घर को सजाया,

 पर उसका छोटा बेटा रवि जिद पर अड़ा था ।

वह उसे नहीं बैठा हुआ छोड़कर अपने काम में लग गई और सोचती जा रही थी कि जब से दूसरे बेटे की शादी हुई है उसके सास-ससुर ने उसके साथ क्यों सौतेला सा व्यवहार शुरु कर दिया ।

क्या वह उसके अब तक पूरे किए हुए सारे कर्तव्य को भूल चुके थे??

 या फिर उनका मन ही नहीं था उस पर!

 सोच-सोच कर उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ,और उसे वह दिन याद आ गया जिस दिन उसे उन लोगों ने घर से निकाल दिया था ।

बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपना गुजारा शुरू किया और अपने पति के साथ मिलकर प्राइवेट नौकरी करके अपने घर को आज इस स्थिति में लेकर आई

 थी ।

सुधा ने बदलते समय को देखकर अपनी नियति मानते हुए इसे स्वीकार कर लिया था ।

शाम को अपने पति का इंतजार करते हुए वह छत पर बैठी थी और जगमगाते हुए शहर को देख रही थी। दूर अपने दादा-दादी के साथ पटाखे छोड़ते हुए बच्चे ,खिलखिलाती उनकी हंसी देखकर सुधा रूआंसी हो गई और बार-बार उसे अपने बेटे रवि की मासूम शक्ल याद आने लगी।

 उसने अपने मन को मजबूत करके पूजा करने के लिए जाने का सोचा ।जैसे ही वह नीचे पहुंची, दरवाजे की घंटी बजी । 

 उसके पति के आने का समय था उसने रवि से दरवाजा खोलने के लिए कहा।

 जैसे ही रवि ने दरवाजा खोला वह खुशी के मारे उछल पड़ा और मां ,मां कहता हुआ मां की ओर दौड़ पड़ा ।

सुधा भी आश्चर्यचकित होकर देखने लगी।

 दरवाजे पर उसके सास-ससुर अपने पोते ,बहू और बेटे के लिए दीपावली के बहुत सारे उपहार लेकर खड़े थे ।

उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

 सबसे पहले उसने उनके पैर छूकर उन्हें बिठाया और आश्चर्यचकित होकर उन्हें देखने लगी ।

रवि की दादी ने कहा -बेटी! हमें माफ कर दो।

 इतना कहना था कि सुधा उनके पैरों में गिरकर फूट-फूट कर रो पड़ी ।

उसने कहा ,रहने दीजिए माँ जी !

आप कुछ मत बोलिए ।

आज आप हमारे साथ हैं यही हमारे लिए सबसे बड़ा उत्सव है ।

उसके बाद जैसे ही उसके पति घर पर आए उन सभी को एक साथ देख कर बहुत खुश हुआ। उसने अपने माता पिता के पैर छूकर उनसे आशीर्वाद लिया और कहा कि मां!! जब तक पूरा परिवार एक साथ होकर कोई भी उत्सव नहीं मनाता, तब तक उत्सव ,उत्सव नहीं लगता ।

आप अपना आशीर्वाद हम पर यूं ही बनाए रखें ।

सुधा ने अपने बेटे रवि की तरफ देखा जो तालियां बजाकर अभी तक खुशी से उछलता जा रहा था ।

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