(अरूणा शर्मा)
टन!टन!टन!टन!टन!स्कूल की घन्टी बजते ही हो-हो का शोर करते बच्चों की जो रेस लगती है, उसमें हर रोज़ की तरह पहले नम्बर पर रहती है, देवी।ठीक उसी तरह जिस तरह वो पढ़ाई, नाच-गाना और खेलकूद में आती है।अपने दादा की ही नहीं, बल्कि पूरे गाँव की चहेती है देवी।रंग दूध जैसा गोरा मिला था उसे,इसलिए सभी उसे “गोरी”ही पुकारते हैं।देवी नाम उसे उसके दादाजी ने दिया था।आखिर दो पीढियों से लम्बे इंतज़ार के बाद उनके घर में बेटी आई थी।इस कारण भी वो अपने पूरे परिवार की लाड़ली थी।
हँसी-ठिठौली करते-करते जब देवी और उसकी सहेलियां-कमली,बिमला और भूरी आदि के साथ जैसे ही वो अपनी गली में पहुँची,उन सबकी हँसी एकाएक रुक गई।उसके घर से रोने की आवाज़ें आ रही थीं और पूरा गाँव व आसपास के गांवों से भी लोग इकठ्ठा हुए थे वहां।देवी दौड़कर भीतर गई।आँगन में पहुंचते ही वो ठिठक गई,अपने काँधे से बस्ता(स्कूल बैग)कमरे की ओर फेंकते हुए वो दादा से लिपट कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।दादाजी जा चुके थे उसे छोड़कर।घरवाले बस,उनकी लाड़ली पोती की ही प्रतिक्षा में थे,ताकि वो अंतिम दर्शन कर ले।
दादा की अंतिम यात्रा का हुजूम उनके रुतबे और व्यवहार के जितना ही बड़ा था।देवी को कभी माँ तो कभी चाचा,पिता सभी सम्भालने की कोशिश में लगे थे,पर उसके आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे।चाचियों व माँ ने बड़ी मुश्किल से उसे घर में ले जाकर बिठाया।
देवी बहुत उदास रहने लगी थी।रह-रह कर दादा की एक-एक बात उसे याद आती।दादा के साथ ही वो पहली बार स्कूल गई।अपनी गोद में उठाकर ले गए थे उसे और बच्ची कहीं रो ना दे,इसलिए पहले दिन छुट्टी होने तक दादा स्कूल के बाहर बार-बार चक्कर लगाते रहे।छुट्टी से ठीक पहले पहुंच गए अपनी प्यारी बिटिया को लेने।उसे याद आ रहा था,दादा के साथ हर रोज़ सुबह की सैर करना, पेड़-पौधों के नाम सीखना और “पुलिस दादा”से ढेर सारी बातें करना।थानेदार साहब उसके दादाजी के मित्र और लगभग हमउम्र थे,वहीं से कुछ महीनों में रिटायर होने वाले थे वे।
दिन बीतने लगे।उठावने की रस्म हुई।दादाजी की अस्थियाँ विसर्जन के लिए भेजी जा चुकी थी।दोनों बड़े चाचा व दादा के दूर के भाई की बेटी के पति,यानि उसके फूफाजी साथ गए थे।आज वे सब लौटने वाले थे।अब परीक्षा सर पर थी और देवी को अपने दादा का सपना पूरा करने के लिए पढ़ाई करनी थी,तो उसने दादा को याद किया,उन्हीं से हिम्मत माँगी और बस्ता उठाकर स्कूल को निकल गई।
आँगन से दरवाजे की तरफ मुड़ ही रही थी कि पड़ौस की एक बुजुर्ग महिला ने उसकी माँ को आवाज़ लगाते हुए उसे रोक दिया।माँ भी उनकी बात सुन हाँ-हाँ कर रही थी।उसने देवी को स्कूल जाने से मना कर दिया था।माँ ने भी उसके कंधे से बस्ता उतार कर उसे भीतर जाने को कहा।वो रोने लगी,चिल्लाने लगी पर उसकी बात किसी ने ना सुनी।
प्रथा के अनुसार उसके दादा के “मौसर” यानि बारवें की रस्म में उसका ब्याह किया जा रहा था।
उसके विरोध और चीख-पुकार से गुस्साए हुए गाँव की महिलाओं ने उसे कमरे में बंद कर दिया था।गाँव वालों की चहेती “गोरी” का रंग काला पड़ गया था।रोते-रोते उसे ज़रा आँख लगी।तभी उसके सामने उसके दादा खड़े थे।उन्होंने देवी को लाड़ किया।उसके सिर पर हाथ फिराकर दादाजी ने उसे उठाया और दोनों की आँखों में बसे सपने उसे याद दिलाये।देवी बोली “पर दादोसा मैं काई करूँ, आप बताओ,एक तो आप भगवानजी रे पास चला गया हो,ऊपर सूँ पड़ौस वाळी(वाली)भँवरी दादी केवे के म्हारो ब्याह करणो है।ब्याह होवे ला जद ही थारा दादोसा री आत्मा ने शांति मिलेला।अब आप बताओ मैं तो बोत छोटी हूँ।अबार तो मने खूब पढनो है।”दादोसा ने सामने रखे फ़ोन की तरफ उँगली दिखाई और बस एक शब्द बोल कर ग़ायब हो गए।वो शब्द था-पुलिस दादा।देवी की नींद खुली और वो चारोंओर देखने लगी।वो समझ गई कि दादा इस बुरी प्रथा को मानते नहीं थे और उसने मेज की दराज से डायरी निकाली और धीमी आवाज़ में बात करते हुए अपने पुलिस दादा को सारी बात बता दी।कुछ ही देर में घर के बाहर बारात की जगह पुलिस की गाड़ियां थीं।शादी रोक दी गई।केवल दादा के अंतिम विधिविधान किये गए।देवी की खुशी ही उसके दादा की आत्मा की सच्ची शांति थी।कुछ समय तक आसपास की बूढ़ी औरतों ने देवी से बात नही की,क्योंकि देवी की बगावत ने उनके बच्चों को भी ज़ुबान दे दी थी,खोलने के लिए।
आज 11 साल बाद एक बार फिर देवी के घर के बाहर लोगों का जमावड़ा है, पर कारण देवी है।आइपीएस ऑफिसर की वर्दी में बड़ी शान से वो गाड़ी से उतरी और घर के आँगन में पैर रखा।अपने दादा की ही तरह देवी ने अपने स्वभाव और संघर्ष से आज अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
मौसर-एक प्रथा है।असल में इस प्रथा को इसलिए प्रारम्भ किया गया था, क्योंकि अगर घर के मुखिया की अकारण मृत्यु या उसके जाने के बाद घर सम्भलना मुश्किल हो तो ऐसे में मृत्यु के बाद होने वाले संस्कारों के खर्च में ही,बिरादरी वालों की ओर से मदद कर उस परिवार के बच्चों का विवाह करा दिया जाता था, ताकि उस परिवार को कुछ मदद मिले व परिवार की स्त्री व अन्य सदस्यों को सम्भलने में आसानी हो।पर वक्त गुज़रने के साथ इस प्रथा ने मृतक की आत्मा की शान्ति के नाम पर अनिवार्य रूप ले लिया।शिक्षा के अभाव में लोग आज भी इस कुप्रथा को निभा रहे हैं।आखिर कब तक ऐसी कुप्रथाएं छोटे- छोटे बच्चों का जीवन बर्बाद करती रहेंगी।क्या देवी जैसी बहादुर लड़कियों का होना या उसके दादा जैसे पारम्परिक मगर कुप्रथाओं को न मानने वाले लोगों का होना ही इसके निवारण का एक मात्र उपाय है?? हमें इस दिशा में बहुत सोचना होगा।बहुत काम करना होगा।
बहुत ही अच्छी कहानी ,समाज की कुरीतियों से लड़ने की प्रेरणा मिलती है ऐसी कथाओं से👌👌
Thanku Sir
beautiful story.
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