बर्फीली शामों की शोखि़यां
थरथराते पत्तों की सरगोशियां
पर्वतों पे रिदा उजली- उजली
फ़लक़ पे शफ़्फ़ाक अब्र की सिलवटों
ने पूछा क्या ये जहांँ कोई और जहांँ है
कहवे के प्याले से उठती गरम बूंँदे
ले जाती हैं किसी और जहांँ में
सुनो जाना! ये मौसम की करवट है
जो रह -रह के लेती है अंगड़ाई
शाम के शीरीन लबों पे
सज रहे हैं गुलाब
ये नसीम – ए -खु़ल्द है या
कोई इत्र घुला समां
जानू ना मैं
कु़दरत भी है क्या ख़ूब मुसव्विर
शाहकार बनाया जीता- जागता
जहांँ हर लम्हा सांँसें लेता है
हर ज़र्रा मुस्काता है
शैदा कैसे ना हो कोई
इस तामीर पे
हिना खालिद”शाइस्ता
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