मिल जाए ऐसा अवकाश,
पूरी हो खुद में, खुद की तलाश।
बैठूंगा जब तले, नीले आकाश,
जब फुर्सत ही होगी केवल, मेरे आस पास।
आह निकली, ऐ काश।
मन बनाया, जंगल की एक सुबह देखने का,
अपने ‘आप’ को जंगल की सैर करवाने का।
देखा दृश्य मनोरम जंगल का,
अद्भुत नजारा ईश्वर की कलाकृति का।
भूल गया फिर मैं सारे काश।
ऊंचे पेड़ थे छूते, नीला आकाश,
जिन्हें बांधा लताओं ने अपने पाश।
पक्षियों की सुर सरगम अधिकांश,
बैठा रहूं इन सबके सकाश।
आह निकली, ऐ काश।
सूरज की किरणें छनकर जब बिखरती,
उसकी ठंडी ऊष्मा से हर पत्ती निखरती।
ओस की बूंदे थके कदमों को सहलाती,
ऐसे ही अवकाश की कल्पना कभी की थी।
बैठा रहूं इनके सान्निध्य, ऐ काश।
भूल गया यहां आकर अपने सारे काश,
लौटा मैं मन में लिए उज्जवल प्रकाश।