तर्क वितर्क में न्याय दब जाता है,
झूठ – सच की गवाही में न्याय चुप रह जाता है।
न्याय कहाँ है, है भी या नहीं?
है ना…. बंदिशों में…
एक का न्याय, दूसरे का अन्याय है,
अब वो गुहार लगाएगा, न्याय की।
न्याय तो है….
किताबों की परिधि में…. बंधा,
किसी बूढ़ी आंखों की… नमी में,
किसी की सिसकियों में…. मजबूर।
मैंने न्याय को नहीं देखा तो…
किसी के होंठों पर…. मुस्कुराहट बनकर,
खुलकर जीते ठहाकों में,
किसी मजबूर की आंखों में…आशा बनकर।
कभी देखा था मैंने न्याय को..
न्यायालय के परिसर में,
न्यायालय की सीढ़ियां चढ़ते,
बूढ़ा हो गया है, शायद रास्ता भटक गया है।
-सोनिया सेठी
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