हरी भरी इस सुंदर धरा पर,
कब और कैसे यह वज्र गिरा।
क्यूँ पड़ गया वज़ूद खतरे में,
ऐसा भी क्या गलत हुआ।
झुलसा रहा सूरज देखो,
धरती का है ताप बढ़ा।
धू-धू कर, धरा जल रही,
हे मानव ! तूने कैसा कुकर्म किया।
जंगल जंगल आग लगी है,
विनाश की ऐसी धुनि जली है।
घर से बेघर पशु हो गए,
अब पगले, तेरी बारी है।
तेरा किया सब आएगा आगे,
संभला नहीं जो अब भी तू।
विपरीत हो गई बुद्धि तेरी,
विनाश को तू खुद बुलाएगा।
नदियों ने भी रौद्र रूप किया है ,
कितनों को ही लील दिया है।
अज्ञानी, संभल जा अब भी,
खत्म होगा वरन ये खेल सभी।
पाठ पढ़ा स्वार्थ का ऐसा,
ना पाठ याद रहा संतुलन का।
हम सब इक दूजे के पूरक,
और मां वसुंधरा वरदायिनी।