उलझनों का सफर चलता जा रहा है ,
“आरी “का असर बढ़ता जा रहा है ,
जब गम खुशियों पर भारी पड़ जाए
उस समय “तम ” मिटता नहीं मिटाना पड़ता है ,
यह और “ज़फा ” है वरना गम का “तम” सभी को सहना पड़ता है ,
कभी-कभी इन अश्कों की आबरू के लिए ना चाहते हुए भी मुस्कुराना पड़ता है,
अब अपने पास तो खुद को भी नहीं मिलते हम,
हमें भी खुद से बहुत दूर जाना पड़ता है ,
“अज़ल “तक की रीत है “अख्ज़ ” बहुत है दुनिया में एक हम ही हैं शायद इस “असफ़ार” में जो तम को चीर बस चलते जा रहे हैं ़़़़़़़बस ़़़़़़़।
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