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सीमा वालिया। (विधा : कविता) (आकाशगंगा | प्रशंसा पत्र)

पूछता है एक तारा हजार तारों से एक सवाल,
क्या ,हम भी बन पाएंगे आकाशगंगा के नौनिहाल।।

ब्रह्मांड का कालीन बना है वह, क्या हम भी जुड़ पाएंगे
इतना दूर है या है इतने पास, क्या हम कभी समझ पाएंगे।।

ना लगे यह जोत दिए कि ना लगे यह ज्वाला हवन की,
तारों का झिलमिलाता समूह इसका प्रकाश फैला जाता।।

रातों को धरती से सिर्फ इसका प्रतिबिंब नजर आता है,
दूर इसका अवलोकन मन में कई जिज्ञासा छोड़ जाता है।।

मचल जाते अकाश की इस गंगा के लिए कई सवाल,
ठहर जाऊं वहां जहां आकाशगंगा का हो बस राज।।

पृथ्वी की खामोशी से दूर खुद को प्रकाशमान करती हुई
करोड़ों ग्रह और तारों को अपने अंदर समेटे हुई ।।

आकाशगंगा के यौवन की इस छटा से निकलता प्रकाश
जगमगाता सूरज भी शरमा कर जाने कहां छुप जाता है।।

गहरी रात में जब यह आती है चारों तरफ सन्नाटा छा जाता बस केवल आकाशगंगा का ही परचम लहराता ।।

रात की काली स्याही से लिपटी इसकी चांदनी बिखर आती
तेज प्रकाश पुंज से खेत खलिहानों को जगमगा जाती है।।

कभी-कभी चीर सन्नाटा में इसका आना भयावह लगता है परंतु इसका साया रोशनी में भी अपना सा लगता है।।

बहती नदी भी उफान लेते झरनों की तरह गुंजायमान हो जाती है जब-जब अकाश गंगा आसमान में नजर आती है।

जाने अनजाने ही कभी मायूस होते विचारों में यह
सवालों और जवाबों के कटघरे में नजर आती है।।

(स्वरचित सीमा वालिया)

 

 

 

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