बूंदें बारिश की आसमान से, उतर पाक ही आती हैं।
ना पालती प्रीत किसीसे,ना बैर ही पनापाती हैं।
शुरुवाती बूंदें तो ऐसी, सकुचाई सी आती हैं।
कर क्षण भर शीतल,रफूचक्कर हो जाती हैं।
तप्त त्रस्त सृष्टि समस्त,निर्मल शीतल कर जाती है।
धो धरा को कोमलता से,परिसर को महकाती है।
झुग्गी, कुटिया या महल,जल बिन शर्त बरसाती हैं।
बिछा सर्वत्र हरा गालीचा, वसुधा समस्त सजाती हैं।
कवि हृदय में श्रंगार के,स्पंदन सौम्य जगाती हैं।
भिगो तन-मन, युवा हृदय, रोमांचित कर जाती हैं।
बरसाती और छत्तों के, रंग नए बिखराती हैं।
कहीं सींचती खेतों को, फसलें खूब बढ़ाती हैं।
भुट्टे, पकौडे, चाय, मदिरा, सेवन का समां बनाती हैं।
दे प्रेरणा सैर सपाटे की, खुशियों के रंग बिखराती हैं।
पर मुफलिसी के आलम में, आफ़त सी बन कर आती हैं।
चूकर छत, दर, दीवारों से, सीलन, घुटन बढ़ाती हैं।
डुबा बस्तियां बाढ़ में, विघ्वंस कहर बरपाती हैं।
कर संक्रमित रोगों को, बीमार जन कर जाती हैं।
बचे खुचे पेड़ों की संख्या, कुछ और घटा जाती हैं।
ढहा छत निर्धन सर से, आंसू खून के रुलाती ह
घर भर कर कुछ जनों को, खूब खुशहाल कर जाती हैं।
बदतर हाल लाचार जनता, पेय जल को तरसे जाती हैं।
मासूम मना हर बूंद अलग, किरदार कहां से पाती हैं?
कुटिल क्रूर शोषण तंत्र का, क्यों विवश अंग बन जाती हैं?
Shyam sunder sharma
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