रुखे व जर्जर हो गए हवाओं के सरसराहट
सब खो गए हैं वो ठण्डी ठण्डी थपथपाहट
क्षुब्ध हूये पडे हैं वो नशीले गुंजती आहट
न कहीं सजते हैं मस्त रुतवाए सुगबुगाहट ।
लपक लपकके सूरज बन गये है बिकराल
बदल दिए है अपनी सहज दीर्घ मस्त चाल
यत्र तत्र जलाती है शान्त भूमि तल बेहिसाब
जग जन जीवन बिलखता है पस्त व बेहाल।
बन जंगलके हरित दृश्य पट बांझ व नीरस है
मौसमके चेहरे मुरझाए हूये क्षुब्ध अलख है
बूझता हुआ दीये की दर्द भरा तीखी चटख है
लगता है शुष्क जीवन संदर्भ के गहन दर्द है।
अतिब़ृष्टि कहीं, कहीं तो अनावृष्टि की आलम है
कहीँ बिनाशकारी भूकम्पके चढती ढनढन है
कहीं आंधी बवंडर के भयावह दानवरुपी रँग है
लगता है ये प्रलयका अनबोले सन्देश अङ्ग है. ।
अब हम सब जग धरा रक्षा हेतु अटल प्रण करें
हरियालीके मनमोहक छन्द से हमारे धरा भरें
धरा ऊत्ताप, प्रदूषणसे श्रापित धरा मुक्त करेँ
पर्यावरण संरक्षण हेतु हम एक ही स्वरमें जूडे ।