क्या सोचा था तुमने जब
काट वृक्ष इतराये थे
जड़ को निकाल फेंक आये
और पथरीली इमारत बनाये थे
शहरीकरण के अहंकार से हजारों जंगल बर्बाद हुये
नर , पशु और हरियाली यूँ झूठमूठ आबाद हुये
जल को अपनी धरोहर समझ बहा बहा कर खत्म किया
अब प्यासे नद औ सागर हुये ज्यों चिराग का बुझता दिया
तुमने सोचा तुम स्वामी हो, है धरा तुम्हारी सम्पत्ति
कभी अन्देशा न हुआ होगा जो आयी वसुधा पर विपत्ति
बूँद बूँद को तरस रहे कहीं सूखा कहीं बाढ़ है
बरस रहे नभ से शोले अब न वो मूसलाधार अशाढ़ है
जंगल जंगल आग लगी है जल रही है ये धरा
वृक्ष लगाओ जल बचाओ तभी जियेगी ये वसुंधरा !