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रीता बधवार (विधा : आलेख) (न्याय | सम्मान पत्र)

न्याय शब्द का ज़िक्र होते ही मन में उचित,अनुचित का विवेक

फ़ैसला,इंसाफ़ आदि बातों का ख़याल अनायास ही आ जाता है।

 हर समाज व देश सभी कालों में कुछ व्यवस्थाओं एवं अनुशासन से बँधा होता है।सरल भाषा में हम इन्हें न्याय या कानून भी कह सकते हैं। न्याय व क़ानून का तो चोली दामन का साथ है ।हमारा जीवन भी ‘कुछ करने’व ‘कुछ न करने की हिदायतों से परिभाषित होता है।इनका पालन न करने पर समाज व सरकार द्वारा दंड का प्रावधान भी है।

प्रागैतिहासिक कालसे ही मनुष्य एवं पशु समाज में- यहाँ तक 

कि प्रकृति में भी नियमों के पालन को आवश्यक माना गया है

बर्बर समाज व जंगल का भी अपना एक क़ानून होता है।सभ्य सुसंस्कृत समाज में चेतना व बुद्धि के विकास के साथ न्याय,

दंड वकानून व्यवस्था में समय-२ पर महत्वपूर्ण परिवर्तन किये 

गये।मनु से लेकर प्लेटो,अरस्तू व सुकरात जैसे महान विद्वानों

और दार्शनिकों ने न्याय व्यवस्था को सामाजिक उन्नति के लिये आवश्यक बताया है ।

भारत में मर्यादा पुरूषोत्तम राम से लेकर महान राजा हर्षवर्धन

अपनी अभूतपूर्व न्याय व्यवस्था प्रणाली के लिये जाने जाते हैं।हमारे इतिहास और पौराणिक कथाओं में ऐसे अनेक राजा

महाराजाओं का उल्लेख मिलता है ।

अंग्रेज़ों के शासनकाल की न्याय व्यवस्था से तो हम सभी भली-भाँति परिचित हैं । परंतु स्वतंत्र भारत के संविधान में

न्याय का उचित प्रावधान किया गया है ।सर्वोच्च न्यायपालिका( Supreme Court)इसका जीता जागता उदाहरण है ।

प्रश्न उठता है कि क्या हमें अपने इस सार्वभौम स्वतंत्र राष्ट्र में

समय पर न्याय मिल पाता है?क्या अपराधियों को उनके ग़लत कामों की सज़ा समय पर मिलती है।संभवत: ऐसा नहीं है। क्या हमारी क़ानून व्यवस्था पूरी तरह सजग,चुस्त और निष्पक्ष है?क्या हमारे देश व समाज में घर से शुरू होकर बाहर की दुनिया में लिंग,जाति व धर्म केआधार पर कोई भेद-

भाव नहीं ?

        हमारी शिकायत हो सकता है बहुत हद तक सही हो।

पर न्याय अंधा नहीं। उसके दरबार में देर तो है पर अंधेर नहीं।

 

@रीता बधवार

(स्वरचित)

(सर्वाधिकारसुरक्षित)

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