ऐसा ही है मेरा ये पागल मन
जब भी आह्लादित हो पुलकित होता है
पलकों पर ठहर जाते हैं हर्षातिरेक के अश्रुकण मोती समान
भीग जाती हैं पलकें,
करुणा से विगलित विचलित असह्य वेदना से जब भी उद्वेलित होता ये मन
पलकों से छलक पड़ती पीड़ा,
ठहर जाते अश्रु पलकों पर
दग्ध तवे पर जल की बूंदों समान
भीग जाती पलकें,
शिशु बन जब भी मचलता ,रूठता या यौवन की अंगड़ाइयां लेता मन,
भावनाओं की अभिव्यक्ति बन
छलक पड़ते अश्रु
ठहर जाते पलकों पर
पंखुड़ियों पर ओस की बूंदों समान
भीग जाती पलकें
जब भी शीश झुकाती मंदिर में पूजन को
झंकृत हो उठते मन की वीणा के तार
अश्रु ठहर जाते पलकों पर
मन मोहन की अनुकंपा बन
भीग जाती पलकें
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