उम्र के इस पड़ाव पर आकर
विचलित करने लगा है मुझे यह प्रश्न
कैसा होता है अदृश्य अनंत रूह का सफ़र? अनिश्चितता,अनियमितताअसिंदग्धता
क्या इस सफ़र में भी है?
तन रूपी आवरण को त्याग कर
किन किन आयामों से गुजरती है रूह ?
अपनों से बिछड़ने की पीड़ा
क्या उसे भी होती है?
अगर नहीं, तो क्यों कहते हैं
आत्मा अतृप्त है प्यासी है।
धर्म,जाति और भाषाओं के बंधन में
बंधी हुई है यह भी?
कैसा महसूस होता है उन रूहों को
जिन्हें अकस्मात ही चल देना पड़ता है
अपनों से बिछड़ कर अनजान , अनंत राहों पर,
ऐसा भी तो होगा
कर्म घर अच्छे होंगे तो रूह को भी
चैन होगा , आराम होगा
सफ़र सहज होगा
अन्यथा वही ,दुख , वही तकलीफ़ वहां भी,
इक अजब सी ख्वाहिश है
देखना चाहती
मैं अपनी रूह का सफ़र
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कैसा होगा?
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