सावन की पुकार
शहर की कोलाहल को
शांत करता सावन
हर बार नया सा लगता है मुझे
जब देखती हूं
अपने झरोखे से,
दूर क्षितिज तक फैला
काले बादलों का जाल
कभी टूटता सा नजर आएं
तो उठती है कसक मन से,
अपने लिए घरोंदो की खोज करते परिंदे
जब बैठते हैं तावदान पर आकर
तो दाना खिलाती हूं अपनेपन से,
कभी गर्म चाय की चुस्की में
पकौड़े की मस्ती में
खाली पलों का एहसास
भुला देती हूं हक़ से,
इस सावन को कहीं दूर
पर्वत श्रृंखलाओं पर अनुभव
करने का ख्याल गुदगुदा देता है
तो मिल आतीं हूं संह्याद्री की वादियों से,
टिप टिप बारिश की बूंदें रूक जाएं
तन पर कहीं ;तो धारण करतीं हूं
उन मोतियों को शान से,
सावन की हर पुकार को
सुनने लगी हूं आज कल
मैं पूरी दिलचस्पी से,
ताकि अगला सावन जब आए
तो वह भी न भूलें पुकारना मुझे प्यार से।
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