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श्रीमती भार्गवी रविन्द्र ( समय प्रतियोगिता | युगान्तकारी रचना हेतू प्रशंसा पत्र )

समय ने कब सोचा क्या गुज़रती है उसके गुज़र जाने के बाद
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बहुत देर तक ठहरा रहा ‘वो ‘ * मेरी दहलीज़ पे
कुछ अनमोल लम्हों का तोहफ़ा लिये,
चंद हँसीन यादों का गुलदस्ता लिये
अपनों का इंतज़ार लिये ,दामन में सपने हज़ार लिये
अनमना सा वो टहलता रहा
बेचैन सा वो भटकता रहा
मुझसे मिलने को बेक़रार था ,
शायद ,उसे इंतज़ार था
बाहर आकर कुछ समय , “समय “के साथ बिताऊँगी
कुछ उसकी सुनूँगी ,कुछ अपनी सुनाऊँगी
अपनी व्यस्तताओं के बीच भी मै उसके क़दमों की आहट पहचान लूँगी
मगर ज़िंदगी की जद्दोजहद मे इतना समय ही न मिला
उसके संग चंद पुरसुकून लम्हे गुज़ार सकूँ
मैंने समय दिया ज़िदगी के हर छोटे बडे रिश्तों को
बडी शिद्दत से निभाया उसकी हर शर्तों को
मगर,कब समय मुझ पर मेहरबाँ हुआ?
मेरे ग़मों का राज़दाँ हुआ ?
समय मेरे दर से होकर गुज़र गया पता ही न चला
बहुत आवाज़ भी दी ,चाहा समय को मना लूँ,
मगर,फिर वो कभी मेरे पास लौटकर नहीं आया ।
आज ज़िंदगी के इस मोड पर, सब है-
बस वो बचपन की ख़ुशियाँ नहीं रही,समय अब अपना नहीं रहा।
समय तो बस समय है उसे तो गुज़रना ही है
समय ने कब सोचा क्या गुज़रती है उसके गुज़र जाने के बाद !

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