” नेमत हो गर खुदा की तो इंद्रधनुषी रंग सिर्फ आसमान में ही नहीं, दिल पर भी बिखरा करते है। “
यह कहानी एक मां के जज्बातों पर आधारित है।
उसका बेटा पढ़ाई करने विदेश जा रहा था।वो सामान रखते रखते हज़ार आंसूओं के घूंट पी रही थी। अनेक चिंताएं….
क्या खाएगा?
क्या पकाएगा?
कैसे रहेगा?
सात समुंदर पार कौन खयाल रखेगा उसका?
बार बार उसने बच्चे से मिन्नतें की, कि वो कुछ खाने पीने का समान साथ ले जाए।अच्छा कम से कम अपनी पसंद का कुछ तो खाते जा।
खीर बना दूं?
पराठा खाएगा?
आलू पूड़ी खा ले।
अच्छा! कुछ बनाना तो सीख ले। मां सेवा का अवसर ढूंढती रह गई पर बच्चे ने एक फरमाइश ना रखी। आखिर वो दिन आ ही गया जब बेटे ने जाना था। बाहर आसमां गरज-बरस रहा था और अन्दर माता पिता का दिल। अपने दिल के टुकड़े को जाते देखना आसान न था। भावुक मन से बमुश्किल खुद को संभाला दोनों ने व बेटे को रुकसत किया। बेटा अब दिल्ली पहुंचा, उसने २-३ दिन वहां दोस्तों के पास रुकना था। मां के बचपन की सहेली भी दिल्ली में रहती थी। मां ने उसे सहेली से मिलने को कहा।मां को लालच था कि जाते जाते कुछ तो घर सा महसूस कर जाए। मां का कहना मानते हुए बेटा उनकी सहेली से मिलने गया। जब वो मिलकर वापिस अपने दोस्तों के पास जा रहा था, उसने मां को फोन किया। मां इंतज़ार में ही बैठी थी। फोन उठाते ही उसने बड़े उत्साह से पूछा, “कैसा लगा बेटा, आंटी से मिलकर? मेरे स्कूल की सहेली है। क्या क्या बातें की?कुछ खाया?” बेटे ने मां को शांत किया और बोला, “मां, कॉफी पिलाई आंटी ने और ढेर सारी बातें की।और हां! उन्होंने ‘ कड़ा प्रसाद ‘ (जो गुरुद्वारे में मिलता है) भी खिलाया।” इतना सुनने की देरी थी और मां की आंखें भर आई। उसका दिल गदगद हो उठा। उसे लगा जैसे सारी कायनात ने उसके बच्चे को गले लगा लिया है।उसे प्रतीत हो रहा था मानो, भगवान ने खुद आगे बढ़कर उसके बेटे को आशिर्वाद दिया है, सहेली के हाथों से।उदास दिल अब हर्षित हो उठा था। मन में लड्डू फूट रहे थे, इंद्रधनुषी रंगों का बसेरा था और भोर विभोर मां परवरदिगार का कोटि कोटि शुक्रिया अदा करती हूई अब बेफिक्र हो कर कह रही थी, ” जिसके सिर ऊपर तू स्वामी, सो दुख कैसा पावे। “