रात की काली अंधेरी फैलती चादर
सो गया सूरज सुबह के बेचकर सपने
दिन उधारी में मिला था पर विरासत रात की
अपनी परछाईं से भी अब लगे डरने
अंधेरे का सफर ये कभी खत्म क्यों होता नहीं
देह तो क्या रूह भी अब लगी थकने
अंधेरों ने सहेजे हैं जतन से राज कितनों के
इंसानियत के ये मुखौटे अब लगे चुभने
टिमटिमाते ही सही कुछ दे रहे थे रौशनी
वो भरोसे के दिये भी अब लगे बुझने
यादों के थपेड़ों ने रह रह के सताया
अजनबी से हो गए हैं लोग सब अपने
नरेन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव (अँधेरा प्रतियोगिता | सहभागिता प्रमाण पत्र )
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