नव्या उछलतीं हुई अपने घर आई और आते ही,”पापा मैंने ग्यारवीं कक्षा में बायोलॉजी विषय लिया है।”
“चलो अच्छी बात है पूरे गाँव में कोई लड़की तो वैज्ञानिक बने।”पापा ने सब्जी काटते हुए कहा।
“वैज्ञानिक?अर्रे नहीं पापा मैं तो डॉक्टर बनना चाहती हूँ।आपका नाम रोशन करना चाहती हूँ।”नव्या की बात पूरी ही न हुई थी कि पापा ने जोर से चाकू फेंका,”नहीं।…कभी नहीं तू डॉक्टर कभी नहीं बनेगी।इन सफेद कोट पर कितने काले धब्बे होते है,कितने काले लोग होते है तू कुछ नहीं जानती।मैं तुझे इन धब्बों के बीच कभी नहीं जाने दूंगा…कभी नहीं।”चिल्लाते हुए वे बाहर चले गए।
अचंभित और दुखी नव्या कुछ समझ ही न पाई।उसके पापा ने कभी उससे इस तरह बात नहीं की थी।रोती हुई वह रसोई में गयी काकी के पास।एक काकी ही तो थी जिन्होंने बचपन से उसे पाला था,उसकी दादी की कमी वे ही पूरी करती थी।
“अरी कौन सी आफत आ गई जो इतने टसुए बहा रही है।तेरे पापा देख लेहे तो जान खा जेहे कि हमाई परी खा कीने रोबाओ।का हो गाओ बताओ तो?”पुचकारते हुए काकी बोली।
“पापा ने ही रुलाया है काकी,बोल रहे है कि डॉक्टर नहीं बनोगी तुम।”वो काकी के गले लग गयी।सुन काकी गंभीर स्वर में बोली,
“बहुत घाव है तुमाए पापा के दिल पर,तबाई मना करी उने।नई ता तुम भी जानती हो वो तुमे कबहुँ न रुलाहे।चिंता न करो बो खुदई बताहे तुमे।”
रात पापा छत पर थे जब नव्या उनके लिए दूध लेकर आई।वह जाने लगी कि पापा ने अपने पास बुलाया।
“नाराज़ हो पापा से?नव्या आज कुछ बताना चाहता हूँ तुम्हें।तुम जानती हो न तुम मेरी बेटी नहीं हो।मैंने कभी शादी नहीं की।बात उन दिनों की है जब मैं दीनदयाल अस्पताल में कंपाउंडर था।बड़े बड़े डॉक्टरों के साथ आपरेशन में खड़ा रहता था।एक दिन एक बड़ी गरीब औरत इमरजेंसी में भर्ती हुई।उसके साथ कोई न था और वह गर्भवती थी।हम उसे आपरेशन थिएटर ले गए। आपरेशन हुआ और उसने एक लड़के को जन्म दिया।डॉक्टर उसे टांके लगा रहे थे कि शहर के मेयर की बहू भी गंभीर स्थिति में आई।डॉक्टर उस औरत को छोड़ तुरंत मेयर की बहू को देखने गए।मैंने और नर्स ने मिलकर उसकी पट्टी की और बच्चे की साफसफाई की।कुछ देर बाद डॉक्टर एक नवजात बच्ची को लेकर आये और बोले कि इसे पकड़ो और जो लड़का इस औरत को हुआ है दो उसे जल्दी।मैं समझ नहीं पाया सो जैसा उन्होंने कहा मैने किया।फिर उन्होंने वो बच्ची मुझे दी और नर्स को बोले कि इसका वही करना है जो पिछली बार उस बच्ची का किया था।तुम सबको तुम्हारा हिस्सा मिल जाएगा।
डॉक्टर के जाने के बाद मैंने नर्स से पूछा कि ये सब क्या हो रहा है।उसने बताया कि अगर किसी गरीब को लड़का होता है तो हम उसे नही बताते और उस बच्चे को किसी अमीर को मोटी रकम लेकर बेच देते है।मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था जो मैंने उस वक़्त सुना।फिर नर्स ने इंजेक्शन देते हुए कहा कि इस बच्ची को लगा दो आधे घंटे में यह मर जाएगी फिर उस औरत को बोल देंगे कि मरी हुई बच्ची हुई थी उसे।मैं कांप रहा था,मेरी हिम्मत न हुई इंजेक्शन लगाने की।
डॉक्टरों को भगवान का रूप माना जाता है और उनका यह घिनोना रूप देख मुझे डॉक्टर जात से घिन आ रही थी।इस पवित्र सफेद कोट पर ऐसे डॉक्टर काले धब्बे के समान थे। मैंने उस बच्ची को उठाया और भाग गया वहाँ से।फिर कभी न गया उस अस्पताल।”
“आपने उस बच्ची का क्या किया पापा?”मैंने उत्सुकतावश पूछा।
“वो नन्ही बच्ची मेरी परी है नव्या।मैं शायद तुम्हें वो एशोआराम न दे पाया जो तुम्हारे असली मां बाप दे पाते।”आंखों में आँसू के साथ पापा ने मेरा हाथ थामा।
“पापा मेरी ज़िंदगी आपकी वजह से है।अगर आप भी उस काले धब्बे का हिस्सा होते तो आज मैं यहाँ न होती।”नव्या अपने पापा के गले लग गयी।
©डॉ. श्वेता प्रकाश कुकरेजा
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One Comment on “डॉ. श्वेता प्रकाश कुकरेजा। (विधा : लघुकथा) (काला धब्बा | सम्मान पत्र)”
Touched the heart ❤️