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डॉ. श्वेता प्रकाश कुकरेजा। (विधा : लघुकथा) (भाषा | प्रशंसा पत्र)

उम्र के आखिरी पड़ाव पर आज जब कभी छत पर बैठता हूँ तब चाँद में उसके चेहरे का ही दीदार होता है।बादलो में चाँद छुपता ,तो लगता उसका मासूम चेहरा उसकी भीगी लटों के बीच लुका छुपी खेल रहा हो।उसका ख्याल ही होठों पर मुस्कुराहट बिखेर देता है।दिल में आज भी टीस सी चुभती है।शायद मैं उसकी प्रेम की भाषा समझ नही पाया।

बात उन दिनों की है जब पूरे मोहल्ले की लड़कियां मुझ पर फिदा थी।मैंने भी आशिक़ी में पी.एच.डी कर रखी थी।उन्ही दिनों मिश्राजी के घर एक परिवार किराए पर रहने आया।पहनावे और भाषा से वे लोग साउथ इंडियन लग रहे थे।उस पाँच लोगों के परिवार ने एक मासूम से चेहरे ने मेरा ध्यान खींचा।बड़ी बड़ी हिरनी जैसी आँखें जिन्हें काजल की ज़रूरत ही न थी,सुंदर रेखाओं सी भौहों के बीच में काली बिंदी जैसे नज़र का टीका लगा हो और काली घनी ज़ुल्फ़ें उफ्फ!मैं अकेला ही नहीं पूरे मोहल्ले की लड़कियां भी फिदा हो गयी थी उनपर।जब टॉवल से लपेटे हुए बालों को खोलती तो मन करता कि इन ज़ुल्फो के आग़ोश में ताउम्र गुज़ार दूँ।

मैं सारा दिन उसकी एक झलक पाने को घंटों छत पर खड़ा रहता।उसे भी शायद पता था तभी कभी कपड़े सुखाने या कभी अचार की बरनी रखने के बहाने वो भी छत पर आ जाती और मुझे कनखियों से देखती।उस दिन तो मेरी धड़कन ही रुक गयी जब अचानक बाजार में वह मेरे सामने आ गयी।हमारी नज़रे मिली और वो मुस्कुरा दी।कितने दिनों तक ख़ुशी के मारे उछलता ही रहा मैं।

मेरे दोस्त कहते,”बेकार समय बर्बाद कर रहा है,न वो तेरी भाषा समझे न तो उसकी,ज़िन्दगी भर क्या देखते ही रहोगे एक दूसरे को?”
मैं कहता,”हम बने तुम बने एक दूजे के लिए….फ़िल्म याद है न?प्यार भाषा का मोहताज़ नहीं होता… प्यार को शब्दों की ज़रूरत नही होती।”औऱ मुझे मेरे डायलॉग पर दाद मिलती।

नवरात्रि के दिनों में माता का पंडाल लगा था औऱ उसका परिवार हर शाम आरती के लिए आता।एक दिन उसे अकेला पा कर मैं उसे पंडाल के पीछे ले गया।उसकी झील सी गहरी आंखों में लगा मैं उसमें डूब जाऊंगा।मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा,”मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”वह कुछ न बोली बस मुस्कुराई।मुझे लगा मेरी भाषा नहीं समझ रही।मैंने फिर कहा,”आई लव यू” वह फिर शर्मायी।उसने फिर हाथ से कुछ इशारे किये जो मैं समझ नही पाया।फिर वो मेरी लाचारी समझ गयी और पास पड़ी बजरी पर उंगली से लिखा,”I’m deaf and dumb..I talk in sign language”(मैं गूंगी और बहरी हूँ…सांकेतिक भाषा से बात करती हूँ)
पढ़ते ही मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई और मैं उसे वही छोड़ के भाग आया।मेरे लिए ये सदमे से कम न था।शायद अलग भाषा स्वीकार कर लेता पर मन यह स्वीकारने को राजी नहीं था…कि वह सुन और बोल नहीं सकती।मैं छत पर न गया न ही घर से बाहर निकला।कुछ दिन बाद वह दरवाज़े पर आई।झील सी आँखे आज आंसुओं से लबालब थी उसने हाथों से वही इशारे किये जो उस रात किये और वह चली गयी।बहुत दिनों बाद एक फ़िल्म में वही इशारे करते हीरो को देखा औऱ जाना उसका मतलब ‘आई लव यू’ होता है।आज एहसास होता है कि उसके ज़ज़्बात मेरे लिए पाक थे।

आज बड़ा पछतावा होता है।अपना ही डायलॉग नही समझ पाया कि प्यार की भाषा नहीं होती….और न ही ज़ुबान।

©डॉ. श्वेता प्रकाश कुकरेजा

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