ईश्वर ने पृथ्वी को ना तोड़ा था,बल्कि खुल्लम खुल्ला छोड़ा।
उसी में हम जंजीर डाले, गलियां ,उपगलियां बना के जोड़ा।
रास्ते को भी भटकने पर मजबुर कर के छोड़ा।
खुद जो फंसे उसी में ऐसे कि जीन्देगी भटकती रहीं।
गली में फंसे,ऐसे तो सारी जीन्देगी भी कम पड़तीं गयीं।
खुद डालें हम पैर में जंजीर,जो थी खुली खुली।
जीन्देगी भटकने को मजबुर,ऐसे हैं उस गली।
जहां बाग बगीचे से फुल तोड़ कर लायी गयीं,
भुल भुलैया अन्धी गली में कुचले हुए फिकी पड़ गयीं।
दिन दहाड़े खामोशी सन्नाटा,रात को सनसनी खेज।
रात सजती हैं दुल्हन की तरह, माहौल में मेहफिल की आवाज।
जांवाजों की घुटनें भी रात को लड़ खड़ाते हैं यहीं।
दहाड़ता शेर लड़ खड़ाके घुटनें टेक देता है युहीं।
यही है उस गली, जहां नाम सरे आम बदनाम होती रहीं,
अंधेरी रात की सारे बदनाम, गुमनामी में घुलतीं गयीं।
उस गली में ना शैशव की किलकारियां,
ना यौवन का है लाज।
उस गली तो नाम को छिपाती,बदनामी का यहां है राज।
उस गली रोज राज छिपाए, बचाए अमीरों के लाज।
जैसे अमीरी रहे सलामत,बनी रहे समाज का ताज।
उस गली है खुद बदनाम, हमने बनाएं हैं ऐसे।
खुदा के उपर है खोदकारी,खुदा भी बक्से कैसे!!
डॉ शैलबाला दाश (UBI उस गली में प्रतियोगिता | सहभागिता प्रमाण पत्र)
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