आओ आज फिर ,एक बार थोड़ा जी लें,
बर्फीली शामों में ,ज़रा ज़िंदगी भर दें ।
किसी ठंडे चूल्हे में , थोड़ा आग सुलगा दें ,
गीले आटे से ज़रा , गरम रोटी बना दें ।
आओ आज फिर …
किसी बूढ़े बाबा को , एक रज़ाई ओढ़ा दें ,
तो कहीं गलते पैरों को , जुराबें पहना दें ।
गली के भिखारी को ,एक घर का सहारा दें ,
छोटे किसी कुत्ते को , गरमाता बिछौना दें ।
आओ आज फिर …
अब के साल , ठंड बड़ी लम्बी आई है ,
सर्द हवाओं ने मेरी , रूह तक कंपाई है ,
जिन बर्फीली शामों में,ख़ुशियाँ कहीं जम गई हैं ,
आओ जमी ख़ुशियों को, ठहाकों से पिघला दें ।
आओ आज फिर …
करीबी रिश्तों में , जहां बर्फ़ की चादर पड़ी है ,
बिन बोले जहां ,शब्दों की सरगम थमी है ,
आओ आज फिर ,दिल के टूटे तार कस दें ,
तान फिर प्यार की , आज शाम निकाल दें ।
आओ आज फिर …
टीले के ऊपर जो ,चाचा का चाय ठेला है ,
बर्फ़ीली शामों में , बिन हमारे सूना है ,
अंधेरा सा है , बिजली का बिल शायद भरा ना है,
आओ वहाँ मिल बैठें ,चाय का घूँट ज़रा भर लें ।
आओ आज फिर …
साल दो हज़ार बीस,सच में बीस बरस जैसा है,
सदियों के बाद,दुनिया में ऐसा दहशत का फेरा है,
इस साल की बर्फीली शामें, ज़रा ज़्यादा सर्द हैं,
चलो इस वक़्त को,उम्मीदों के अलाव से बिता दें।
आओ आज फिर …
स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित ©
डॉ आराधना सिंह बुंदेला
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4 Comments on “डॉ आराधना सिंह बुंदेला। (विधा : कविता) (बर्फीली शामें | सम्मान पत्र )”
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Thanks dear Jyoti
Well written poem dr aradhna
सुन्दर…