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आराधना सिंह बुंदेला । (विधा : कविता) (भाषा | सम्मान पत्र)

कैसे बताऊँ , कितनी प्यारी हो तुम ,
मुझे मेरे माँ बाबा से,और उनको उनके से मिली हो तुम ,
कहना सुनना,सीखना सीखना ,सब तुमसे ही है ,
अपनापन,प्यार और संस्कार सब तुममें ही है ।

तुमसे हैं बचपन की कहानियाँ,
वो हंसने रोने और डरने डराने की ज़ुबानियाँ ,
कभी रातों को काला बाबा आता था ,
कभी पारियों ने हमें दुष्ट जादूगरों से बचाया था ।

भाषा के परिवेश में हम हैं रचे बसे ,
घर के माली भी , माली काका हैं ,
रसोई पकाने वाली भी,अम्मा या काकी हैं ,
सबका सम्मान और तहज़ीब की ये कहानी है ।

आप, आपका , आपने और आपके ,
हुकुम , प्रणाम , पाय लागूँ ,खम्मा घणी ,
ये मेरी भाषा के सम्मान देने के तरीक़े हैं ,
बड़ों को कभी भी दुःख ना देने के सलीके हैं ।

ये भाषा गूंजती है,पापा की सीख बनकर ,
माँ की झिड़कियों में,जीवन का संस्कार बनकर ,
सही ग़लत की पहचान बनकर ,
और बड़ों की बोली में,ज़िंदगी की राह बनकर ।

ये भाषा मेरे , होने की पहचान है ,
ये मेरे बिन बोले सलीकों की आवाज़ है ,
ये मुझमें रची बसी, मेहँदी की ख़ुशबू सी ,
मातृभूमि की मासूम,और ख़ुशनुमा मुस्कान सी ।

@आराधना सिंह बुंदेला

 

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