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अनामिका जोशी “आस्था” (अँधेरा प्रतियोगिता | सम्मान पत्र )

एक कोने में दुबकी हुई वह उन दोनों हैवानों को देख रही थी जो शराब की बोतले खाली किए जा रहे थे और वह तीन-चार घंटे जो उसके साथ किया था, अपनी उस करने पर हंस रहे थे।
उनकी राक्षसी हंसी उसके कर्ण-पटल पर धौंकनी के समान प्रहार कर रही थी। उनमें से एक चाकू की धार को देख देखकर शायद कोई योजना बना रहा था। हृदय से करुण चीत्कार उठती हुई वह सोचने लगी । उसे अपना भविष्य दिखने लगा ।’बस अब कुछ ही क्षणों में उसे मौत के घाट उतार दिया गया है, उसकी अधजली लाश मिली है।
वह सुर्खियों में है ।
तभी उसका ध्यान भंग हुआ। जब उनमें से एक शराब के नशे में होने के कारण धम्म से जमीन पर गिरा
दूसरे ने उसे होश में लाने की कोशिश की पर वह भी नशे में धुत था ।वह उन दोनों से भय खाती हुई एक बार फिर उस पीड़ा से कराह उठी।” हां कैसे एक ने उसका मुंह दबाया और उसकी छाती पर बैठने का प्रयत्न करने लगा था और दूसरे ने कसकर उसकी टांगे पकड़ कर उस जघन्य कृत्य को अंजाम दिया ।
उसे लगा अच्छा हो यह लोग उसे मार दे, नहीं तो कैसे इस कलंक को लेकर अंधकार मय जीवन जिएगी।
नहीं ,नहीं !! क्या यह मेरी गलती है? यदि मेरी नहीं तो अंधेरा भी मेरे जीवन में क्यों ??
सहसा एक बिजली सी शरीर में दौड़ी। उसने भरपूर जोर लगाकर अपने आप को संभाला ,उठी और उस चाकू की और लपकी।
न जाने कहां से अदृश्य शक्ति उसमें आई ।कुछ ही क्षणों में उसने उन दोनों को लहूलुहान कर दिया। दर्द से तड़पते हुए उसने जब दोनों को देखा तो एक बारगी अपनी पीड़ा भूल गई ।
उनकी मर्दानगी को जड़ से उखाड़ कर वह आज सुकून पा रही थी ।
उसे लगा जैसे एक रूह उससे कह रही हो ,अंधेरा तुम्हारे जीवन में नहीं अब इनके जीवन में होगा।

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