ललिता वैतीश्वरन । (विधा : कविता) (तो क्या | प्रशंसा पत्र)
इस’तोक्या’ मेंहैछिपी संवेदना मानवता की हर स्वतंत्रता की सीमा के पार दिखती क्रूरता दानवता की एक का आनन्द बन जाता जब वजह दुख दूसरे का
इस’तोक्या’ मेंहैछिपी संवेदना मानवता की हर स्वतंत्रता की सीमा के पार दिखती क्रूरता दानवता की एक का आनन्द बन जाता जब वजह दुख दूसरे का
अरे!! समधीजी! यहआपक्याकहरहेहैं?? इस वक्त हम इतने पैसों का इंतजाम कहाँ से करेंगे? “फेरे तो पूरे हो जाने दीजिए।” “नहीं !! बाकी फेरे एक लाख
तोक्या! अगर शहर छोटा है मेरा तंग गलियों में आशियाने यहां भी है नहीं अगर इमारतें गगनचुंबी वो मिलो मील खुले आसमान यहां भी है
तो क्या!!!गरआज वक्त थम सा गया है, माना बुरा है,कल फिर अच्छा आएगा ही। सूनी पड़ी हैं गलियां– तो क्या !!!!! कल वहां भी गूंजेगी
तोक्याहुआ “उफ़्फ़, क्या लड़की है? एक माँ है जो रोज़ उगता सूरज देखती है और बेटी की सुबह गुजरते दिन के साथ होती है…या अल्लाह
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