रजिंदर कौर। (विधा : उद्धरण) (बर्फीली शामें | प्रशंसा पत्र)
बर्फीली शाम का अपना ही इक मज़ा है , ठंड के मौसम में चाय और यादों के साथ जीवन मंथन करे । (c) रजिंदर कौर
बर्फीली शाम का अपना ही इक मज़ा है , ठंड के मौसम में चाय और यादों के साथ जीवन मंथन करे । (c) रजिंदर कौर
सर्दी की बर्फीली शामें हम दोनों मियां बीबी गर्म कपड़ों से लद कर स्कूटर से ड्राइव पर निकल जाते।घर आ कर रजाई की गर्मी का
बर्फीली शामों की शोखि़यां थरथराते पत्तों की सरगोशियां पर्वतों पे रिदा उजली- उजली फ़लक़ पे शफ़्फ़ाक अब्र की सिलवटों ने पूछा क्या ये जहांँ कोई
आज भी याद आती हैं वो बर्फीली शामें भट्टी की आग के पास बैठते थे हम सारे भाई और बहनें दादा-दादी या नाना-नानी के साथ
फिर सर्द हवाओं ने छेड़ा तराना फिर इन वादियों, इन पर्वतों ने ओढ़ी सफ़ेद चादर फिर याद आई संग तेरे बिताई हुई वो बर्फीली शामें
लहू उबाल पे है ज़रा वो सीने में आग सी जलती है यूंँ कहूं मैं कभी -कभी बर्फी़ली शाम भी सुलगती है घबराया -घबराया सा
घाटी में वैधव्य छा गया गीत कोई कैसे गाऊं नजरबंद कहीं धूप हुई जमती सांसें कहां पिघलाऊं घाटी में वैधव्य छा गया… अपनेपन का ढोंग
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