ग़ज़ल
हर आशिक जैसा अपना भी अंजाम हो गया।
पाकीज़ा मोहब्बत का क़त्ल फिर, सरेआम हो गया।।
हल्की सी वो छुवन आज भी सिहरन पैदा करती है।
जीने का गोया, अबद तक इंतज़ाम हो गया।।
मदमस्त मँडराता भँवरा गुलाब पर ग़ज़ल लिखे।
लबों से लब हमारे क्या मिले, कोहराम हो गया।।
आँखों से अल्फ़ाज़ पढ़ने का हुनर आशिक जानते है।
झुकती आँखों से मिला सलाम, कलाम हो गया।।
गुमशुदा हूँ, खूद की अब, खबर नहीं रहती।
अपने मुक़ाम का पता ढूंढना मेरा, काम हो गया।।
इश्के – बीमार ग़फलत में साँसें लेना गया भूल।
जिगर पर बे-काम होने का, इल्ज़ाम हो गया।।
बिछड़े थे जहाँ, शजर आता राहों में कई बार।
वह शजर “आभा” मेरे लिए तपोधाम हो गया।।
अबद – अन्नतकाल, चीरकाल
कलाम – बातचीत
ग़फलत – अचेतनता
शजर – वृक्ष, दरख़्त
आभा….