Satyendra Singh

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खुद को बलिहारी करके धीर-धीरे नज़रों को उठा तुम्हें देखा है। अपनी हस्ती को नगण्य मान समस्त स्वरूपी तुम्हें देखा है। है धीमी अपनी चाल किन्तु कदमों की लहराहट में... More

कभी था एहसास कि अटूट पत्ता हूँ उस वृक्ष का सत्य के ज्ञान का समय शायद मेरी उम्र से भी कम था। काट दी गई मुझ तक पहुँचने वाली जल... More

Satyendra Singh इरादे तो न थे मिलने के हमारे पर क्यूँ मिल जाते थे वो बहाने से, था मज़बूत दिल से भी बहुत मैं, क्यूँ होश उड़ गए नज़रों के... More

कहीं बैठा था मैं अपने स्वप्न-मित्रों के साथ और लगा तभी मुझे कि एक हवा के झोकें से कुछ विचलित सा हो गया हूँ मैं और किंचित मन के क्षितिज... More

कभी सुनी है तुमने तन्हाई की आवाज़बैठे थे जो साथ, हम तुम कभीहाथों में हांथ भी था, और महसूस किया थाहृदय-भावों का निर्मल चुम्बन।किंचित आँखों से ही कुछ तुम कह... More

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