सीमा वालिया। (विधा : कविता) (आकाशगंगा | प्रशंसा पत्र)
पूछता है एक तारा हजार तारों से एक सवाल, क्या ,हम भी बन पाएंगे आकाशगंगा के नौनिहाल।। ब्रह्मांड का कालीन बना है वह, क्या हम
पूछता है एक तारा हजार तारों से एक सवाल, क्या ,हम भी बन पाएंगे आकाशगंगा के नौनिहाल।। ब्रह्मांड का कालीन बना है वह, क्या हम
अनंत ब्रह्माण्ड का स्वरूप दिखाती, विशाल आकाशगंगा, नित नयी घटनाएं और रहस्य समेटे, कल्पनातीत है आकाशगंगा। स्वप्रकाशित तारें है इसमें, विशाल ग्रह-उपग्रह है, कितने उल्कापिंड
“मानवता के सभी कृत्य आकाशगंगा से भगवान को देख रहे होंगे। अनंत, रहस्यमय, आकाशगंगा.!!! ©® के.वी.के.नायर
आकाशगंगा सा जीवन हो चला है चारों ओर चकाचौंध वाली सितारों सी दुनियाँ है नक्षत्रों से विचार घूम रहे है इर्दगिर्द मन अनबुझ पहेली के
कैसे लिखूँ सार मैं उसका जिसका कोई पार नहीं है समेटे धरती आसमां साथ सितारें और कईं घोर घना है रूप जो इसका धूल, गैस
कृष्णा माटी खाकर तुम छुप गए , मैया यशोदा के डर से जब ; माँ ने पकड़ा और जो झिड़का , मुस्का कर मुख खोला
“बेटा, तुम्हारे पापा।“ विशाल के साथ खड़ी रीमा बोली “माँ, ये आपके पति हो सकते है,पर मेरे पापा कभी नहीं..मैंने पहले ही कहा था मुझे
‘आकाश गंगा’ का नाम सुनते ही मन एक अनोखी तरंग से भर बल्लियों उछलने लगता है । मन में प्रश्नों की झड़ी सी लग जाती
असीम, अनंत, अविरल आकाशगंगा पौरुष के सम अडिग मानवीय कामनाओं सी अंतहीन बाल सुलभ किलकारी सी चमचमाती आकाशगंगा…… © अपर्णा झा
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