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हरी चूनर

हरी चूनर  (पर्यावरण दिवस)

काटकाट कर जंगल,

मानव कर रहा अमंगल।

चकाचौंध के चलते ,

किसान बेच रहे हैं खेत,

कोई उनसे पूछे,

खाओगे क्या रेत?

नदियाँ लगी सिकुड़ने,

जानवर लगे घरों से बिछड़ने।

घटती पेड़ों की क़तारें,

बढ़तीदौड़ती असंख्य कारें

ग़र बचाया नहीं सूखती नदियों को,

चुल्लू भर पानी ही रह जाएगा उनमें डूबने को।

किसका है ये दोष?

लालच में नहीं होश,

प्रकृति का अब झेल रहे सब रोष।

स्वच्छ हवा और शुद्ध पानी नहीं मिलेंगे मॉलों में,

ऑक्सीजन और सुगंध नहीं मिलेंगे मेड इन चाइना फूलों में।

कटते वृक्ष , सूखती नदियाँ,

देख रही अपने घर कटते गिलहरियाँ।

बागों से लुप्त होती कलियाँ,

नदियों में दम तोड़ती मछलियाँ,

असहनीय हो रही अब प्रकृति की सिसकियाँ।

ग़र जीना है तो पर्यावरण को बचाना होगा,

अपनी चाहतों पर अंकुश लगाना होगा,

वरना आधी ही ज़िन्दगी जी कर ऊपर जाना होगा।

आओ, धरती माँ की चूनर रंग दें ,

फिर से उसमें हरा रंग भर दें ,

वृक्षों की उसे सौग़ात दे दें ,

पाला है जिसने उसे मिटने दें ,

बचा उसको ,खुदको जीवन दान दे दें ,

बचा उसको , खुदको जीवन दान दे दें ।।

इंदु नांदल

स्वरचित ✍️

जर्मनी

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2 Comments on “हरी चूनर

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