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डॉ शैलबाला दाश ( जलती वसुंधरा प्रतियोगिता | प्रशंसा पत्र )

जलता है तन,जलती है वदन।
चिंगारी है घृणा की,सुलगता है हर अंतर्मन।
जलते हैं सूर्य,तारें, गर्दिश के अनगिनत नयन।
जलती है बसुंधरा,ज़हर फ़ैलाता है अशुद्ध मैला पवन।
कृद्ध है सुरज,कृद्ध है तारे
खाक हो रहे हैं , सब के सब बेचारे।
धरती रो रही है बेचारी डर के मारे।
भाग दौड़ में जीवन खो जाती है सारे।
दावानल में जीवन हो रहा है स्वाहा।
वन जीवन को न मिलें कोई राहा।
जहां आग न लगी हो,वहां छाई है धुआं।
सांसों में घुटन, बेचारे जाए तो भी जाएं कहां!
जलती है जतुगृह, अपनी ही गलती की आग में।
जलती है मानवता,गलती है जतु की सेतु,नफ़रत की चिंगारी में।
हर जगह फैली है, चिंगारी और शोला।
अंदर में पनपता है,सुलगता आग का गोला।
निकलते ही फैलता है बन कर आग बबूला।
आज़ जो आया है आमाजन की बारी।
सदियों से सुलगता था यह भड़कता चिंगारी।
छिनती है सांसें धरती मां की दिल से।
कालिख पोतता है सभ्यता की मुंह पर तमांचे से।
धिक है मानव,धिक है प्रकृति उपर यह घिनौना अत्याचार।
शिशुपाल का सौ माफि का हो रहा था चुपके से इंतजार।

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