जब चारो ओर तन्हाई हो
ना जाने क्यूं तब
शाम की उदासी में
मेरी भी उदासी घुल घुल जाती है
दिल में विचारों की तब
उठा पटक शुरू हो जाती है
कोई विचार मुझे ठीक ठहराता है
कोई विरोध पर उतर आता है
तब मै साहिल पर जैसे बैठ
इन विचारों की लहरों को
देखने का जतन करती हूं
कुछ लहरें जैसे रेत अपने संग ले जाती है
कुछ उसे वापिस छोड़ जाती है
बस कुछ यूं ही मेरे
जज्बातों का आलम होता है
मै भीतर बाहर भारी हो जाती हूं
तब मैं उस वक्त
विचारों के ज्वारभाटे के गुजर जाने का
बेताबी से इंतजार करती हूं
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