” उलझी-जिंदगी “
जिंदगी के जद्दोजहद के बीच
वो उलझी हुई जिंदगी
वहीं ….,
इस चिलचिलाती गर्मी में
पेट की आग के खातिर
करती है काम मजदूरी का ,
एक माँ ,
बांध कर अपनी पीठ पर
अपने बच्चे को
ताकि .,
वह सुरक्षित रह सके
आँचल की छाँव में
धूप और गर्म हवाओं से ,
वहीं …,
भूख या प्यास लगने पर
उसे दूध पिला सकूँ
अपनी आँचल की छाँव में ,
वो उलझी हुई जिंदगी
और भी उलझ गई है उसकी
संवारते हुए बचपन को उसके
वहीं ….,
जब वह देखती है
अपनी ,कुंदन सी काया को
जो,खो रही है अपनी चमक को
इस ईट और पत्थरों के बीच
धीरे धीरे ..,
इस उलझी हुई जिंदगी के संग
वो उलझी हुई जिंदगी …..||
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब
How useful was this post?
Click on a star to rate it!
Average rating 1 / 5. Vote count: 4
No votes so far! Be the first to rate this post.